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क्या रहूँ ग़ुरबत में ख़ुश, हुआ नवदिश का ये हाल,

नामा लाता है शहर से, नामाबर अक्सर खुला हुआ।

सब क़त्ल हो के तेरे मुक़ाबिल से आए हैं

हम लोग सुर्ख़-रू हैं कि मंज़िल से आए हैं

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

शम-ए-नज़र ख़याल के अंजुम जिगर के दाग़

जितने चराग़ हैं तिरी महफ़िल से आए हैं

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगर

कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

बना कर फ़क़ीरों का हम भेस ‘ग़ालिब’,

तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं।

मिर्ज़ा ग़ालिब

आया है बेकसी-ए-इश्क पे रोना ग़ालिब,

किसके घर जायेगा सैलाब-ए-बला मेरे बाद!

मिर्ज़ा ग़ालिब

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे,

होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे।

मिर्ज़ा ग़ालिब

ग़ालिब बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे,

ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे।

मिर्ज़ा ग़ालिब

यही है आज़माना तो सताना किस को कहते हैं,

अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ क्यूँ हो।

मिर्ज़ा ग़ालिब

मिलना तिरा अगर नहीं आसाँ तो सहल है,

दुश्वार तो यही है कि दुश्वार भी नहीं।

मिर्ज़ा ग़ालिब

ज़िंदगी यूँ भी गुज़र ही जाती,

क्यों तेरा रहगुज़र याद आया।

मिर्ज़ा ग़ालिब

तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूठ जाना,

कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार होता।

मिर्ज़ा ग़ालिब

तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद,

था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना।

मिर्ज़ा ग़ालिब

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी,

तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है।

मिर्ज़ा ग़ालिब

तू भी नादान है ज़माने से फ़राज़,

वो भी नाख़ुश है वफ़ा से तेरी।

अहमद फ़राज़

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