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आया है बेकसी-ए-इश्क पे रोना ग़ालिब,

किसके घर जायेगा सैलाब-ए-बला मेरे बाद!

मिर्ज़ा ग़ालिब


यानी: मुझे इश्क़ की बेबसी पर रोना आ रहा है—जिस तरह की मुसीबतें और दुख मेरे हिस्से में आए, मेरे बाद ये तूफ़ान (सैलाब-ए-बला) किसके दरवाज़े पर जाएगा? यानी, मेरे बाद कौन ऐसा आशिक़ होगा जो इस क़दर दर्द और तकलीफ़ सहने वाला होगा?


गहरी तशरीह: ग़ालिब यहाँ इश्क़ की मुश्किलों और अपनी तकलीफ़ों को बयान कर रहे हैं। उनका इश्क़ महज़ मोहब्बत नहीं, बल्कि एक ऐसी आज़माइश है जिसने उन्हें बेहद परेशान और बेबस कर दिया है। वो यह नहीं कह रहे कि उनकी तकलीफ़ सबसे बड़ी है, बल्कि वो मोहब्बत की तकलीफ़ को लेकर यह सोच रहे हैं कि जब वो नहीं रहेंगे, तो अगला शिकार कौन होगा?

यह शेर इश्क़ की तकलीफ़ों का एक गहरा बयान है—इश्क़ में महबूब की बेरुख़ी, जुदाई, तन्हाई और दुनिया की दी हुई तकलीफ़ें मिलकर आशिक़ को पूरी तरह तोड़ देती हैं। ग़ालिब यह कह रहे हैं कि मोहब्बत की राह में जितने दुख मैंने सहे, अब ये दुख किसके हिस्से में आएंगे?


मिसाल: जैसे कोई इंसान कहे—"इतनी मुश्किलों से तो मैं गुज़र गया, लेकिन सोचता हूँ कि मेरे बाद ये मुश्किलें किसके नसीब में आएंगी?“ यह एक तरह की मोहब्बत की विरासत है, जो हर आशिक़ को अपने हिस्से की तकलीफ़ें देकर जाती है।

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