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तिरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूठ जाना,

कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार होता।

मिर्ज़ा ग़ालिब


यानी: अगर हम सिर्फ़ तेरे वादे के सहारे ज़िंदा रहे, तो इसे सच्चाई मत समझना। असल में, अगर हमें तेरे वादे पर पूरा यक़ीन होता, तो शायद हम ख़ुशी से ही मर जाते। यानी हमें तेरा वादा पूरा होने की उम्मीद तो थी, लेकिन उस पर पूरा भरोसा नहीं था, इसलिए ज़िंदा रहे।


गहरी तशरीह: यह शेर मोहब्बत में नाकामी, वादों की नाज़ुक सच्चाई और इंसानी जज़्बात की पेचीदगी को बयाँ करता है। जब किसी को अपने महबूब के वादों पर आधा-अधूरा यक़ीन हो, तो वह उम्मीद और शंका के दरमियान जीता है। अगर वाक़ई उसे पूरा यक़ीन होता कि वो वादा पूरा होगा, तो शायद इतनी शिद्दत से खुश होता कि वही खुशी उसकी जान ले लेती। लेकिन चूँकि दिल में हमेशा एक शंका बनी रही, इसलिए वह ज़िंदा रहा, मगर उस वादे के सहारे नहीं—बल्कि एक अधूरी उम्मीद के सहारे।


मिसाल: जैसे कोई आशिक़ अपने महबूब के यह कहने पर जी रहा हो कि “मैं जल्द वापस आऊँगा” या “मैं तुमसे मोहब्बत करता हूँ”, लेकिन उसे यह भी महसूस हो कि शायद यह वादा सिर्फ़ कहने की बात हो। अगर उसे पूरा यक़ीन होता कि यह वादा ज़रूर पूरा होगा, तो वह इतनी ख़ुशी में मर ही जाता। यह शेर मोहब्बत में इन्तज़ार करने वालों के दिल का दर्द है, जहाँ वादा तो होता है, मगर उस पर पूरी तरह ऐ'तिबार (भरोसा) करना ख़तरनाक लगने लगता है।

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