जिसे नसीब हो रोज़-ए-सियाह मेरा सा,
वो शख़्स दिन न कहे रात को तो क्यूँकर हो।
मिर्ज़ा ग़ालिब
यानी: जिस इंसान की तक़दीर में मेरी तरह काली रातों जैसे ग़म और परेशानियाँ लिखी हों, वो अगर दिन को भी रात न कहे, तो और क्या करे? जब ज़िंदगी में हर तरफ अंधेरा ही अंधेरा हो, तो उजाले का एहसास कैसे हो सकता है?
गहरी तशरीह: यह शेर उन लोगों की हालत को बयान करता है जो लगातार मुश्किलों और दुखों से घिरे रहते हैं। जब किसी की ज़िंदगी में हर तरफ मायूसी, ग़म और परेशानियाँ हों, तो उसे रोशनी और उम्मीद भी अंधेरे जैसी ही लगती है। यह शेर मोहब्बत में नाकामी, ज़िंदगी की तल्ख़ सच्चाइयों और तक़दीर के सितम को दर्शाता है। जब इंसान पर दुख लगातार हावी रहते हैं, तो उसकी सोच और नज़रिया भी उसी हिसाब से बदल जाता है—वो खुशियों में भी दर्द महसूस करने लगता है।
मिसाल: जैसे कोई शख़्स सालों से तंगहाली और तकलीफ में जी रहा हो, और फिर अगर कोई उसे कहे कि हालात बेहतर होंगे, तो वो यकीन ही न कर पाए। उसके लिए हर वक्त की परेशानी इस कदर हावी हो जाती है कि वो दिन को भी रात समझने लगता है, यानी वो उम्मीद की रोशनी को भी अंधेरे की तरह देखता है।