रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी,
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है।
मिर्ज़ा ग़ालिब
यानी: अब बोलने की ताक़त भी नहीं रही, और अगर ज़रा-सी बची भी हो, तो किस उम्मीद पर यह कहें कि हमारी आरज़ू (ख़्वाहिश) क्या है? जब कोई सुनने वाला ही नहीं, तो अपनी चाहत का इज़हार भी किसके सामने करें?
गहरी तशरीह: यह शेर ग़म और मायूसी की इंतिहा को बयान करता है। जब इंसान बहुत ज्यादा तकलीफें सह लेता है, उसकी उम्मीदें एक-एक करके टूट जाती हैं, तो फिर उसमें कुछ कहने की भी ताक़त नहीं रहती। और अगर वह किसी तरह अपनी बात कह भी सके, तो उसे यह महसूस होता है कि उसकी ख्वाहिशों को सुनने और समझने वाला कोई नहीं है। इसीलिए वह सोचता है कि अपनी आरज़ू का ज़िक्र करने का भी कोई फ़ायदा नहीं।
मिसाल: जैसे कोई शख़्स किसी से बहुत मोहब्बत करता हो, मगर बार-बार ठुकराया जाए, बार-बार उसकी बातें अनसुनी कर दी जाएँ। पहले वह अपनी चाहत के बारे में खुलकर बोलता है, मगर जब हर बार मायूसी हाथ लगे, तो धीरे-धीरे उसकी हिम्मत टूटने लगती है। फिर एक दिन ऐसा आता है कि वह चाहकर भी अपने दिल की बात कहने की ताक़त नहीं जुटा पाता।