बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हम को
देर से इंतिज़ार है अपना
बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हम को
देर से इंतिज़ार है अपना
ये जो मोहलत जिसे कहे हैं उम्र
देखो तो इंतिज़ार सा है कुछ
आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम
अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
बेवफ़ाई पे तेरी जी है फ़िदा
क़हर होता जो बा-वफ़ा होता
‘मीर’ साहब तुम फ़रिश्ता हो तो हो
आदमी होना तो मुश्किल है मियाँ
क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता
अब तो चुप भी रहा नहीं जाता
बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हम को
देर से इंतिज़ार है अपना
यही जाना कि कुछ न जाना हाए
सो भी इक उम्र में हुआ मालूम
इश्क़ में जी को सब्र ओ ताब कहाँ
उस से आँखें लड़ीं तो ख़्वाब कहाँ
फिरते हैं 'मीर’ ख़्वार कोई पूछता नहीं
इस आशिक़ी में इज़्ज़त-ए-सादात भी गई
जब कि पहलू से यार उठता है
दर्द बे-इख़्तियार उठता है
उम्र गुज़री दवाएँ करते 'मीर’
दर्द-ए-दिल का हुआ न चारा हनूज़
यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है
कहते तो हो यूँ कहते यूँ कहते जो वो आता
ये कहने की बातें हैं कुछ भी न कहा जाता
तुझ को मस्जिद है मुझ को मय-ख़ाना
वाइज़ा अपनी अपनी क़िस्मत है
हज़ार मर्तबा बेहतर है बादशाही से
अगर नसीब तिरे कूचे की गदाई हो
यूँ नाकाम रहेंगे कब तक जी में है इक काम करें
रुस्वा हो कर मर जावें उस को भी बदनाम करें
किसू से दिल नहीं मिलता है या रब
हुआ था किस घड़ी उन से जुदा मैं
मिरा जी तो आँखों में आया ये सुनते
कि दीदार भी एक दिन आम होगा
दे के दिल हम जो हो गए मजबूर
इस में क्या इख़्तियार है अपना
जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले
कुछ नहीं सूझता हमें उस बिन
शौक़ ने हम को बे-हवास किया
तदबीर मेरे इश्क़ की क्या फ़ाएदा तबीब
अब जान ही के साथ ये आज़ार जाएगा