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दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है

लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

कर रहा था ग़म-ए-जहाँ का हिसाब

आज तुम याद बे-हिसाब आए

और क्या देखने को बाक़ी है

आप से दिल लगा के देख लिया

दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के

वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं

किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं

इक तर्ज़-ए-तग़ाफ़ुल है सो वो उन को मुबारक

इक अर्ज़-ए-तमन्ना है सो हम करते रहेंगे

आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबान

भूले तो यूँ कि गोया कभी आश्ना न थे

वो आ रहे हैं वो आते हैं आ रहे होंगे

शब-ए-फ़िराक़ ये कह कर गुज़ार दी हम ने

न जाने किस लिए उम्मीद-वार बैठा हूँ

इक ऐसी राह पे जो तेरी रहगुज़र भी नहीं

मक़ाम 'फ़ैज़' कोई राह में जचा ही नहीं

जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

जानता है कि वो न आएँगे

फिर भी मसरूफ़-ए-इंतिज़ार है दिल

गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है जो चाहो लगा दो डर कैसा

गर जीत गए तो क्या कहना हारे भी तो बाज़ी मात नहीं

उठ कर तो आ गए हैं तिरी बज़्म से मगर

कुछ दिल ही जानता है कि किस दिल से आए हैं

इक फ़ुर्सत-ए-गुनाह मिली वो भी चार दिन

देखे हैं हम ने हौसले परवरदिगार के

ये दाग़ दाग़ उजाला ये शब-गज़ीदा सहर

वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं

आए कुछ अब्र कुछ शराब आए

इस के ब'अद आए जो अज़ाब आए

न गुल खिले हैं न उन से मिले न मय पी है

अजीब रंग में अब के बहार गुज़री है

बे-दम हुए बीमार दवा क्यूँ नहीं देते

तुम अच्छे मसीहा हो शिफ़ा क्यूँ नहीं देते

दिल से तो हर मोआमला कर के चले थे साफ़ हम

कहने में उन के सामने बात बदल बदल गई

अब अपना इख़्तियार है चाहे जहाँ चलें

रहबर से अपनी राह जुदा कर चुके हैं हम

मिन्नत-ए-चारा-साज़ कौन करे

दर्द जब जाँ-नवाज़ हो जाए

हम सहल-तलब कौन से फ़रहाद थे लेकिन

अब शहर में तेरे कोई हम सा भी कहाँ है

इन में लहू जला हो हमारा कि जान ओ दिल

महफ़िल में कुछ चराग़ फ़रोज़ाँ हुए तो हैं

मता-ए-लौह-ओ-क़लम छिन गई तो क्या ग़म है

कि ख़ून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैं ने

हर चारागर को चारागरी से गुरेज़ था

वर्ना हमें जो दुख थे बहुत ला-दवा न थे